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आ꣢ नो꣣ वि꣡श्वा꣢सु꣣ ह꣢व्य꣣मि꣡न्द्र꣢ꣳ स꣣म꣡त्सु꣢ भूषत । उ꣢प꣣ ब्र꣡ह्मा꣢णि꣣ स꣡व꣢नानि वृत्रहन्परम꣣ज्या꣡ ऋ꣢चीषम ॥१४९२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ नो विश्वासु हव्यमिन्द्रꣳ समत्सु भूषत । उप ब्रह्माणि सवनानि वृत्रहन्परमज्या ऋचीषम ॥१४९२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢ । नः꣣ । वि꣡श्वा꣢꣯सु । ह꣡व्य꣢꣯म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स꣣म꣡त्सु꣢ । स꣣ । म꣡त्सु꣢꣯ । भू꣣षत । उ꣡प꣢꣯ । ब्र꣡ह्मा꣢꣯णि । स꣡व꣢꣯नानि । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । परमज्याः꣢ । प꣣रम । ज्याः꣢ । ऋ꣣चीषम ॥१४९२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1492 | (कौथोम) 7 » 1 » 2 » 1 | (रानायाणीय) 14 » 1 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २६९ क्रमाङ्क पर परमेश्वर के विषय में की गयी थी। यहाँ विघ्न दूर करने के लिए परमात्मा और राजा से प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे राष्ट्रवासी जनो ! तुम (विश्वासु समत्सु) सब देवासुरसंग्रामों में (नः) हम प्रजाजनों के (हव्यम्) आह्वान करने योग्य (इन्द्रम्) परमात्मा वा राजा को (आभूषत) स्वागत-गानों से अलङ्कृत करो। हे (वृत्रहन्) विघ्न-विदारक, पाप-दल के विध्वंसक, (ऋचीषम) स्तोताओं को मान देनेवाले परमात्मन् वा राजन् ! (परमज्याः) प्रबल आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले आप, हमारे (ब्रह्माणि) ब्रह्मयज्ञों में, तथा (सवनानि) सोमयाग के प्रातः-सवन, माध्यन्दिन-सवन और सायं-सवनों में (उप) आओ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे जगदीश्वर नास्तिक पापियों को दण्ड देकर और धर्मात्मा आस्तिक लोगों से मित्रता करके धार्मिकता का पोषण करता है, वैसे ही राजा भी करे ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २६९ क्रमाङ्के परमेश्वरविषये व्याख्याता। अत्र विघ्ननिवारणाय परमात्मा नृपतिश्च प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे राष्ट्रवासिनो जनाः ! यूयम् (विश्वासु समत्सु) सर्वेषु देवासुरसंग्रामेषु (नः) प्रजाजनानाम् अस्माकम् (हव्यम्) आह्वातुं योग्यम् (इन्द्रम्) परमात्मानं नृपतिं वा (आभूषत) स्वागतगानैः अलङ्कुरुत। हे (वृत्रहन्) विघ्नविदारक पापदलविध्वंसक (ऋचीषम२) स्तोतॄणां मानप्रद परमात्मन् राजन् वा ! [ऋचन्ति स्तुवन्तीति ऋचीषाः तान् मानयतीति ऋचीषमः। ऋच् स्तुतौ, बाहुलकादौणादिक ईषन् प्रत्ययः।] (परमज्याः) परमान् प्रबलान् आन्तरान् बाह्यांश्च शत्रून् जिनाति हिनस्तीति तथाविधः त्वम् अस्माकम् (ब्रह्माणि) ब्रह्मयज्ञान् (सवनानि) सोमयागस्य प्रातर्माध्यन्दिनसायंसवनानि च (उप) उपागच्छ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा जगदीश्वरो नास्तिकान् पापान् दण्डयित्वा धर्मात्मभिरास्तिकैश्च सख्यं विधाय धार्मिकतां पुष्णाति तथैव नृपतिरपि कुर्यात् ॥१॥